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देवता: अग्निः ऋषि: विश्वामित्रो गाथिनः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

वृ꣡ष꣢णं त्वा व꣣यं꣡ वृ꣢ष꣣न्वृ꣡ष꣢णः꣣ स꣡मि꣢धीमहि । अ꣢ग्ने꣣ दी꣡द्य꣢तं बृ꣣ह꣢त् ॥१५४०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

वृषणं त्वा वयं वृषन्वृषणः समिधीमहि । अग्ने दीद्यतं बृहत् ॥१५४०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वृ꣡ष꣢꣯णम् । त्वा꣣ । वय꣢म् । वृ꣣षन् । वृ꣡ष꣢꣯णः । सम् । इ꣣धीमहि । अ꣡ग्ने꣢꣯ । दी꣡द्य꣢꣯तम् । बृ꣣ह꣢त् ॥१५४०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1540 | (कौथोम) 7 » 2 » 2 » 3 | (रानायाणीय) 15 » 1 » 2 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे फिर परमात्मा का विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (वृषन्) मनोरथों को पूर्ण करनेवाले (अग्ने) जगन्नायक परमेश्वर ! (वृषणः) भक्तिरस बरसानेवाले (वयम्) हम उपासक (वृषणम्) आनन्द-रस के वर्षक, (बृहत् दीद्यतम्) बहुत देदीप्यमान (त्वा) आपको (समिधीमहि) अपने अन्दर प्रदीप्त करते हैं ॥३॥

भावार्थभाषाः -

जो परमात्मा को भक्तिरस से भिगोता है, उसे वह आनन्द-रस से भिगो देता है ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनः परमात्मविषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (वृषन्) कामवर्षक (अग्ने) जगन्नायक परमेश ! (वृषणः) भक्तिरसवर्षकाः (वयम्) उपासकाः (वृषणम्) आनन्दरसवर्षकम्, (बृहत् दीद्यतम्) सातिशयं दीप्यमानम् (त्वा) त्वाम् (समिधीमहि) स्वात्मनि प्रदीपयामः ॥३॥२

भावार्थभाषाः -

यः परमात्मानं भक्तिरसेन क्लेदयति तं स आनन्दरसेन क्लेदयति ॥३॥